-यतीन्द्रनाथ राही
अपनी ही निर्मित परंपरा
तब से मुझको यह धरती भी
बिलकुल बंजर-सी लगती है
कोयल की बोली छाती में
मुझको खंजर-सी लगती है
दिन कहाँ गए हरियाली के
फूलों का वैभव कहाँ गया
बादल से आग बरसती है
सावन का उत्सव कहाँ गया
पर्वत गुंडों की तरह अड़े
नंगे वृक्षों के झुंड खड़े
यह हवा झपटती, गालों पर,
मुझको थप्पड़-सी लगती है
जब से... ...
रंगों का मेला लगा हुआ
पर गंध यहाँ से गायब है
सुविधाओं की है भीड़ मगर
आनंद यहाँ से गायब है
मन कितना बड़ा मरुस्थल है
रेतीला उसका हर कोना
सपनों के मंज़र दिखते हैं
सुधियाँ खंडहर-सी लगती हैं
जब से ... ...
-यतीन्द्रनाथ राही
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