-प्रशांत यादव
कितना भोला, कितना चंचल होता है ये मनकभी इधर तो कभी उधर भटका करता पल-छिन
बार-बार सोचा, इसको कर लूँ अपने वश में
रहा मगर हर बार फिसलता है ये चंचल मन
यूँ तो आज तलक इस मन को देखा नहीं किसी ने
मगर हमारे जीवन की ये सबसे अहं कड़ी है
मन की अदा विचित्र बड़ी है और अनोखी दुनिया
इसके इर्द गिर्द हरियाली की हर फसल खड़ी है
मन है ऐसा चमन जहाँ खिलते भावों के फूल
जहाँ पहुँच पल भर में सारे दुख जाते हम भूल
रंग बिरंगे स्वप्न हमारे मन में ही तो आते
इन सपनो से रच लेते हम जग अपने अनुकूल
जहाँ पहुँचने में सकुचाती है सूरज की किरने
पलक झपकते यह चंचल मन वहाँ पहुँच जाता है
मन के लिए नहीं नामुमकिन इस दुनिया में कुछ भी
हम जैसा, जो कुछ भी चाहें, मन में हो जाता है
मानव के व्यक्तित्व सकल का मन होता है दर्पण
चंचल मन के आगे मानव करता सदा समर्पण
है इतना आसान नहीं मन का वर्णन कर पाना
धरती अम्बर तक रहता है मन का आना जाना
मन की व्याख्या नहीं कर सके बड़े-बड़े मुनि ज्ञानी
यह बहता रहता है जैसे किसी नदी का पानी
मन की शक्ति अपार, न इसके आगे चली किसी की
पा जाता राही मंजिल यदि उसने मन में ठानी
-प्रशांत यादव
[ यू.एस.ए. ]
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